1599 ईस्वी में कई अंगेज व्यापारी भारत के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में संगठित हुए। इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ द्वारा 31 दिसम्बर, 1600 को प्रदान किए गए अधिकार पत्र द्वारा इस कम्पनी को राजकीय मान्यता प्रदान की गई । अंग्रेजों का पहला पोत सन 1608 में व्यापार के लिए सूरत पहंुचा। कालान्तर में कम्पनी के श्री विलियम हाकिन्स ने आगरा दरबार में मुगल बादशाह जहांगीर से भेंट कर उनके साम्राज्य में व्यापार करने के लिए सुविधाएं और छूट देने की याचना की। सन 1612 में ‘फरमान’ जारी कर उनको ऐसी सहमति प्रदान कर दी गई। अगले कई दशकों में कम्पनी ने सूरत, मद्रास और हुगली को केन्द्र बनाते हुए विभिन्न स्थानों पर माल संसाधन के लिए कारखानों, गोदामों की स्थापना की और प्रशासन व कर्मचारियों के लिए आवास व अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए भवनों का निर्माण कराया। लगभग 150 साल की अवधि में ही कम्पनी एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित हो गई। मुगल शासन और अंग्रेज व्यापारियों के बीच संघर्ष, जो तब अवश्यम्भावी जान पड़ता था, 1757 में पलासी की लड़ाई के रूप में सामने आया।
इस लड़ाई में जीत के फलस्वरूप बंगाल पर अंग्रेजों का नियन्त्रण हो गया एवं उन्होंने मीर जाफर को बंगाल का नवाब नियुक्त किया। कई लड़ाइयों के बाद अंग्रेजों की यह कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा की एकमात्र स्वामिनि बन बैठी एवं यहॉ से उसे कर उगाही का अधिकार अर्थात ‘दीवानी’ उगाही करने का अधिकार प्राप्त हुआ । यह अधिकार कम्पनी के लिए भारतीय राजनीति में संवैधानिक प्रवेश हेतु महत्वपूर्ण माना गया है। इस सफलता से प्रोत्साहित होकर कम्पनी के अपने सैनिकों को छावनीबद्ध करने का विचार आया। न केवल व्यापार अपितु क्षेत्र की सुरक्षा हेतु भी स्थायी सेना रखना आवश्यक हो गया था। अतः लार्ड क्लाईव ने कम्पनी सुरक्षा बलों के आवास के लिए नगर क्षेत्रों से कुछ दूरी पर गंगा नदी जैसे व्यापारिक मार्गों के साथ-साथ विशिष्ट सैन्य आवास स्थल स्थापित करने की नीति अपनाई। वे अनुशासन के दृष्टिकोण से भी अंग्रेजों और स्थानीय लोगों के बीच बातचीत कम से कम रखना चाहते थे। ये स्थान छावनी के रूप में जाने गए, जहां सुरक्षा बल निवास करते हैं। 1765 में छावनी के रूप में चिन्हित होने वाला बैरकपुर पहला स्थान बना।
अब तक कम्पनी के पास कई रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थानों पर अचल संपत्ति और ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध हो गई थी। 17 मई, 1773 को इंगलैंड की संसद ने एक प्रस्ताव पारित कर सैनिक बल के प्रभाव या विदेशी राजकुमारों के साथ संधि द्वारा किए गए सभी अर्जन को राज्य की संपत्ति घोषित कर दिया गया। इस प्रकार वह सभी भूमि, जो कि विजय, विनियोग, सतत पट्टे, सन्धि या अर्जन द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी और बाद में उपनिवेशीय सरकार के अधिभोग (कब्जे) में आई, इंग्लैंड की संसद के अधिनियम के द्वारा सरकार की संपत्ति मानी गई।
अंग्रेजी संसद द्वारा अधिनियमित 1773 के रेग्युलेटिंग अधिनियम द्वारा पहली बार भारत के परिषद के गर्वनर जनरल को कम्पनी के हितों को सुरक्षित करने और कम्पनी के क्षेत्रों के प्रशासन के लिए नियम, अध्यादेश व नियमन बनाने व जारी करने के अधिकार दिए गए।
कम्पनी ने अंग्रेज अधिकारियों को छावनी में अपने आवास बनाने के लिए भूमि प्रदान किया एवं सुरक्षा बलों के लिए भवनों का निर्माण कराया। गवर्नर जनरल परिषद ने अप्रैल 1801 में आदेश जारी किया कि ‘‘कोई भी बंगला या क्वार्टर ऐसे किसी व्यक्ति को बेचा या अधिभोग (कब्जा) नहीं किया जाएगा, जिसका सेना से संबंध न हो। बाद में उन भारतीयों को घर और दुकानें बनाने के लिए भूमि प्रदान की गई जो कि सुरक्षा बलों के लिए स्थानीय सहायक सेवाएं प्रदान करने में लगे थे। इससे कम्पनी द्वारा सुरक्षा बलों के आवास पर किए जाने वाले पूंजीगत व्यय में कमी हुई। गवर्नर जनरल परिषद और गवर्नर ने छावनियों में अनुदान के तहत भूमि पर अधिभोग की अनुमति निर्गत करते रहे लेकिन ऐसे किसी भी मामले में भू-स्वामित्व का अधिकार अधिभोगी को नहीं दिया गया।
अगले 25 वर्षों के दौरान सेना विनियमों के रूप में छावनियों में भूस्थलों के अधिभोग की अनुमति प्रदान करने की प्रक्रिया से संबंधित विभिन्न आदेश जारी किए गए। भारत सरकार अधिनियम 1833 (जिसे चार्टर अधिनियम 1833 के रूप में भी जाना जाता है) इंग्लैंड की संसद द्वारा अधिनियमित किया गया जिसके द्वारा गवर्नर जनरल परिषद को पूर्ण विधायी शक्तियां प्रदान की गई। इसके परिणामस्वरूप छावनियों में भूमि अंतरण की योजना स्थायी विधिक ढांचे के तहत आ गई। बंगाल प्रेजीडेन्सी में सर्वाधिक व्यापकता से प्रयोग किया गया, सांविधिक आदेश गवर्नर जनरल परिषद का छावनियों में ‘ओल्ड ग्राण्ट’ बंगलों के लिए 12 सितम्बर 1836 का आदेश सं. 179 (जीजीओ 179 दिनांक 12.09.1836) संदर्भित किया जाता है। अन्य प्रेजिडेंसियों में भी ऐसे आदेश जारी किए गए। इन सभी आदेशों के तहत भूमि का स्वामित्व सरकार के पास ही रहा और उसे अधिभोगियों को इस पर स्थित संरचना का मुआवजा देकर पुनः प्राप्त किया जा सकता था। इस प्रकार इन सामान्य आदेशों ने प्रचलित विधि का रूप ले लिया और ये क्रमिक भारत सरकार अधिनियम (1858,1919,1935), भारत स्वतन्त्रता अधिनियम 1947 और भारत के संविधान के प्रावधानों के जारी रहने के कारण ऐसे ही बने रहे।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना और सुदृढ़ीकरण के बाद 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रेजिडेन्सियों में भूमि के अधिकारों व उनके संबंध में उत्पन्न होने वाले दायित्वों की पहचान, निर्धारण, नियमन और प्रशासन के लिए कानून बनाए गए जैसेे बम्बई भू-राजस्व संहिता 1879, पंजाब भू-राजस्व अधिनियम 1887, मद्रास भू-राजस्व संहिता, बंगाल भू-राजस्व संहिता, संयुक्त प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1902, मध्य प्रदेश एवं बेराड़ भू-राजस्व संहिता इत्यादि।
छावनी अधिनियम 1889 में लागू हुआ। तदुपरान्त छावनी संहिता 1899 के रूप में एक गौण विधि ;ेनइवतकपदंजम समहपेसंजपवदद्ध द्वारा छावनियों में भूमि के अधिकारों के अभिलेखों के अनुरक्षण संबंधी नियम और भूमि को पट्टे पर दिए जाने संबंधी नियम निर्धारित किए गए। इस संहिता के लागू होने के बाद छावनियों में अन्य कोई ग्राण्ट नहीं दिया गया । 1899 तक प्रदान किए गए सभी अनुदानांे को ‘ओल्ड ग्राण्ट’ के नाम से जाना जाता हैं।
बैरकपुर में 1765 में छावनी की स्थापना के बाद कई अन्य छावनियां भी स्थापित की गई। सैन्य आवश्यकताओं में परिवर्तन के साथ नई छावनियां स्थापित होने के साथ-साथ कुछ पुरानी छावनियों की प्रासांगिकता भी समाप्त हो गई एवं इन्हें परित्यक्त कर दिया गया।
सैन्य भूमि के अर्जन, अभिरक्षा, नियंत्रण एवं त्यजन का सारा कार्य स्थानीय सैन्य फॉर्मेशन, जो कि अस्थायी थे, द्वारा सरकार के साथ कमान मुख्यालयों और सेना मुख्यालय के माध्यम से किया जाता था। जो अधिकारी ये कार्य देख रहे थे, वे संभवतः भू-कालावधियों (संदक जमदनतमे) प्रशासन और अभिलेख अनुरक्षण की बारीकियों में पारंगत एवं प्रशिक्षित नहीं थे। फलस्वरूप सूचनाएं त्रुटिपूर्ण होती थी एवं कुछ के कागजात बाद के दिनों में उपलब्ध नहीं हो सके।
1920 के दशक के आरंभ में सरकार ने निर्णय लिया कि एक स्थायी और असैनिक संगठन को उपरोक्त कार्य का उत्तरदायित्व सौंपा जाए एवं यह सीधे रक्षा मंत्रालय के अधीन हो। जब पूर्व के विधेयक और संहिता के स्थान पर छावनी अधिनियम, 1924 लागू किया गया तो सेना की कई इकाईयों वाले एक बड़े क्षेत्र के लिए एक ‘‘सैन्य संपदा अधिकारी’’ को भू-प्रशासन संबंधी फील्ड कार्यों के लिए तैनात किया गया एवं उसे सेना से स्वतंत्र रखा गया। यद्यपि, उसे सेना स्थापना के साथ ही रखा गया ताकि वह सेना को परामर्श दे सके। वह रक्षा मंत्रालय को उप निरीक्षण अधिकारी (बाद में उप निदेशक सैन्य भूमि व छावनी) के माध्यम से रिपोर्ट करता था। ये उप- निरीक्षण अधिकारी कमान मुख्यालय के साथ होते हुए भी प्रशासनिक रूप से सेना के अधीन नहीं थे।
छावनियों में भू-प्रशासन छावनी अधिनियम 1924, जिसे बाद में छावनी भू-प्रशासन नियम (सीएलएआर) 1937 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया, के अंतर्गत किया जाता था। इन नियमों के अंतर्गत सैन्य संपदा अधिकारी द्वारा तैयार जनरल लैण्ड रजिस्टर (जीएलआर) में दर्शाए गए भू-स्वामित्व के अधिकार ही सही अभिलेख थे। स्वामित्व के संबंध में महत्वपूर्ण परिवर्तन केवल सरकार की अनुमति से ही किए जाते थे।
कैम्प मैदानों, परित्यक्त छावनियों, चांदमारी स्थल और काफी बाद में दूसरे विश्वयुद्ध की परित्यक्त हवाई पट्टियों के रूप में सैन्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा भूमि छावनियों के बाहर स्थित था। इन भूमि के स्वामित्व से संबंधित विश्वसनीय अभिलेखों को अनुरक्षित किया जाना आवश्यक था एवं इनके प्रबंधन की व्यवस्था की जानी थी। इस क्रम में सैन्य संपदा अधिकारी एवं उपभोगी संगठनों के बीच कर्त्तव्यों का विभाजन किया गया। इन दोनों के बीच कर्तव्य विभाजन भूमि अर्जन, अभिरक्षा एवं त्यजन नियम 1927, जिसे बाद में एसीआर (एमएल) नियम 1944 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया, के तहत जारी किया जाना था। जिसके द्वारा सैन्य संपदा अधिकारी को छावनियों के जनरल लैंड रजिस्टर (जीएलआर) के जैसा सैन्य भूमि रजिस्टर (एमएलआर) तैयार करने की जिम्मेवारी दी गई।
भारतीय सरकार अधिनियम 1935 के द्वारा शासन की संघीय प्रणाली की स्थापना के उपरान्त भारत सरकार की अचल संपत्तियां केन्द्र व प्रादेशिक सरकारों में बांट दी गई।
भारत की स्वतंत्रता और रियासतों के भारतीय संघ में विलय और पूर्व राज्यों की सैनिक टुकड़ियों के भारतीय सेना में विलय के उपरान्त जो परिसंपत्तियां पूर्व रियासतों की सेना के पास थी और जो परिसंपत्तियां रक्षा उद्देश्यों के लिए उपयोग में थी, संविधान के उपबंधों द्वारा भारतीय संघ को प्रोद्भूत (ंबबतनम) हो गई। इन्हें सैन्य संपदा अधिकारियों द्वारा रिकॉर्ड में लिया गया और समेकित किया गया।
1962 के चीनी आक्रमण व 1965 और 1971 के भारत पाक युद्धों ने सशस्त्र सेनाओं के बड़े पैमाने पर विस्तार की आवश्यकता को जन्म दिया। अब नये ढांचों का निर्माण किये जाने की आवश्यकता थी, जिसके लिए सेना, नौसेना, वायुसेना, आयुध कारखानों व रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण की जरूरत महसूस हुयी। इसका उत्तरदायित्व सैन्य संपदा अधिकारियों को दिया गया। सैन्य संपदा अधिकारियों को प्रतिपूर्ति दावों, विवादों व रक्षा मंत्रालय से संबंधित सभी रक्षा भूमि से संबंधित मुकदमों से निपटने के लिए यथोचित शक्तियां प्रदान की गई। रक्षा भूमि पर अतिक्रमणों की रोकथाम, उनका पता लगाने और उनसे छावनियों को मुक्त कराने का दायित्व भी उन संगठनों को दिया गया जिन पर भूमि की अभिरक्षा का जिम्मा था।
30.06.2011 को कुल रक्षा भूमि 17 लाख 53 हजार एकड़ है। इसमें रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लि., भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लि., भारत डायनामिक्स लि., भारत अर्थ मूवर्स लि., गार्डन रीच वर्कशॉप कोलकाता, मझगांव डाकयार्ड, मुम्बई आदि) और सीमा सड़क संगठन की भूमि शामिल नहीं है।
छावनी परिषद
भारत का गर्म और शुष्क वातावरण अंग्रेजों के लिए कठोर था। कम्पनी केे कर्मचारियों का काफी प्रतिशत प्रायः मलेरिया, चेचक, पेट संबंधी, योैन रोग व अन्य रोगो से पीड़ित रहता था। इससे इंगलैंड और भारत के बीच कर्मचारियों की आवाजाही अधिक हो गई, जिसमें लम्बी यात्राएॅं भी शामिल थी। छावनियों की स्थापना अलग ईकाइयों के रूप में हुई, जिनमे कड़े नियम लागू किए गए। कमान अधिकारियों द्वारा जारी आदेशों के तहत साफ-सफाई, स्वच्छता व सुरक्षा की व्यवस्था सेना द्वारा स्वंय प्रदान की जाती थी। इसमें सेना के अनुशासन व मनोबल में वृद्धि हुई। सुरक्षा बलों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ। इस प्रकार छावनियां कम्पनी के सिपाहियों व ब्रिटिश प्रशासन के प्रतिनिधियों के लिए अनिवार्य आवास स्थल बन गए।
आरम्भ में छावनियों में किसी भी निजी हित को अनुमति नहीं थी। लेकिन बाद में सरंचनात्मक ढांचों पर कम्पनी का पूंजीगत व्यय कम करने के लिए अनुदान पर दी गई भूमि पर घर, बंगले व दुकाने बनाने के लिए आज्ञा प्रदान की गई। एक के बाद एक निजी बंगले और बाजार में सेवा प्रदाताअ®ंे के लिऐं को आश्रय बनाने की आज्ञा प्रदान की गई। इस प्रकार 19वीं शताब्दी के मध्य तक असैनिकों के समूह छावनियों में रहने लगे। गलियों, सैनिक आवासों, बंगलों, सार्वजनिक भवनों, विपणन स्थलों आदि के उपयुक्त निर्माण के लिए नियम बनाए गए। छावनियों में रहना अधिक सम्मान का विषय समझा जाने लगा। सेना विनियमों में मुम्बई, मद्रास व कोलकाता में सेना के लिए भी विनियम सम्मिलित किए गए।
सतारा में कम्पनी के रेजीडेंट के रूप में मिस्टर बार्टले फरेरे ने अपने कार्यकाल (1835-50) के दौरान नगर प्रशासन की शुरूआत की। उन्होंने समितियों का गठन किया तथा फंड एकत्रित कर नगर की सफाई करवाई। बाद में वह बम्बई के गवर्नर (1862-1867) बने। 1863 में रायल आर्मी सेनेटरी आयोग ने भारत में शहरों की गंदी हालत पर चिन्ता व्यक्त की। जिसके परिणामस्वरूप, देश के विभिन्न भागों में शहरी प्रशासन की व्यवस्था के लिए अनेक विधेयक लाए गए। इसे 1864-1868 में बंगाल, 1865 में मद्रास तथा 1867 में पंजाब में लागू किया गया। इस प्रक्रिया में बंगाल प्रेजीडेंसी में छावनी अधिनियम 1864, 1866 का मद्रास छावनी अधिनियम-1 तथा बम्बई छावनी अधिनियम, 1867 लाया गया। इन अधिनियमों ने उस समय तक प्रवृत्त अधिनियमों का स्थान लिया। नगर प्रशासन को कराधान की कोई शक्ति नहीं थी तथा गैर सरकारी सिविलियनों की कोई भागीदारी नहीं थी। 1870 में गवर्नर जनरल लार्ड मेयो ने शहरी प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी चाही। उनके उत्तराधिकारी लार्ड रिपॅन ने अपने 1882 के संकल्प के माध्यम से स्थानीय स्वशासन की अवधारणा शुरू की।
1889 के छावनी अधिनियम XIII में छावनियों में विभिन्न नगर कार्यों को करने के लिए एक छावनी प्राधिकरण बनाए जाने की व्यवस्था की गई। इसका विस्तार ब्रिटिश के अधीन पूरे भारत में किया गया। छावनी प्राधिकरण में पूर्ण रूप से सरकारी सदस्यों अर्थात् स्टेशन के अफसर कमांडिंग, छावनी के सभी कमांडिंग अफसरों, छावनी मजिस्ट्रेट, सफाई अधिकारी, कार्यकारी अभियन्ता, जिला पुलिस अधीक्षक को शामिल किया गया। स्टेशन के अफसर कमांडिंग, इसके पदेन अध्यक्ष थे।
भारत अधिनियम 1919 के परिणामस्वरूप छावनी अधिनियम तथा संहिताओं को निरस्त कर दिया गया तथा छावनी अधिनियम 1924 आरंभ किया गया। इसमें निर्वाचित सिविलियन प्रतिनिधित्व, कर लगाने तथा भवनों व व्यापार गतिविधियों को विनियमित करने की व्यवस्था की गई। सिविलियन सदस्यता को सरकारी सदस्यता के बराबर कर दिया गया। इस तथ्य पर विचार करते हुए कि छावनियों में प्रमुख रूप से सेना रहती है, यह बहुत तर्कसंगत था। इसमें विशुद्ध नगरपालिका विधान जैसे सभी उपायों का प्रावधान किया गया। छावनियों को उनमें रहने वाली सिविलियन आबादी के आकार के आधार पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया। इसके आधार पर छावनी बोर्डों को 03 से 15 सदस्य अधिकृत किए गए एवं छावनी में लगाए जाने वाले कर निकटवर्ती नगरपालिकाओं के समान रखे गए। सेनाओं को करों से छूट दी गई।
बोर्ड अपने फंड रख सकते थे तथा अपने कर्मचारियों की नियुक्ति कर सकते थे। स्टेशन के अफसर कमांडिंग को पदेन अध्यक्ष बनाया गया। केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त एक नए सृजित अधिशासी अधिकारी, काडर से संबंधित एक सिविलियन अधिकारी को छावनी बोर्ड का सचिव तथा अधिशासी अधिकारी बनाया गया। बोर्ड ने कमान के जनरल अफसर कमांडिंग-इन-चीफ के पर्यवेक्षण तथा नियंत्रण में कार्य किया। जनरल अफसर कमांडिंग-इन-चीफ सीधे केन्द्रीय सरकार के प्रति जवाबदेह थे। भारत सरकार अधिनियम 1935 तथा 1950 में भारत के संविधान के लागू होने के पश्चात् भी प्रशासन की यह योजना जारी रही। इनसे विधायी तथा नियंत्रण संबंधी प्रयोजन के लिए केन्द्रीय विषय के रूप में छावनियों में स्थानीय स्वशासन स्थापित किया गया।
छावनी अधिनियम 1924 को निरस्त कर उसके स्थान पर छावनी अधिनियम 2006 लाया गया। इसमें सिविल सदस्यों को सेना सदस्यों के समान रखकर एक बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत की गई। संविधान के 74वें संशोधन के अनुरूप महिलाओं के लिए एक तिहाई तक सीटें आरक्षित कर दी गई। इस नए अधिनियम से आबादी के आधार पर छावनियों को चार श्रेणियों में रखा गया। 50,000 से अधिक की आबादी वाली सभी छावनियां श्रेणी-1 में हैं। 2500 से कम आबादी की छावनियां श्रेणी – प्ट में आती हैं। श्रेणी-1 की छावनी में 16 सदस्य होते हैं जिनमें से आठ सदस्य स्थानीय निवासियों द्वारा चुने जाते हैं। शेष आठ पदेन/नामांकित सदस्य होते हैं। स्टेशन के अफसर कमांडिंग बोर्ड के अध्यक्ष तथा मुख्य अधिशासी अधिकारी, भारतीय रक्षा संपदा सेवा के एक अधिकारी, बोर्ड के सदस्य सचिव होते हैं।
उन निर्वाचन क्षेत्रों, जिनमें छावनी का पूरा अथवा आंशिक क्षेत्र शामिल है, का प्रतिनिधित्व करने वाले संसद तथा विधान सभा के सदस्य बोर्ड की बैठकों के लिए विशेषतः आमंत्रित किए जाते हैं, परन्तु उन्हें वोट का अधिकार नहीं है।
छावनी बोर्डों पर प्रशासनिक नियंत्रण कमान के जनरल अफसर कमांडिंग-इन-चीफ तथा प्रधान निदेशक रक्षा संपदा के माध्यम से केन्द्रीय सरकार द्वारा किया जाता है।
कुल 61 अधिसूचित छावनियां हैं। सबसे अन्त में अजमेर को छावनी के रूप में 1962 में अधिसूचित किया गया। सम्पत्ति कर छावनियों में राजस्व का मुख्य स्रोत है। चूंकि सरकारी सम्पत्ति पर कर से छूट है, अतः केन्द्रीय/राज्य सरकारें इसके बदले छावनी बोर्डों को सेवा प्रभार देते हैं। घाटे में चल रहे बोर्डों को केन्द्रीय सरकार द्वारा सहायता अनुदान भी दिया जाता है।
छावनियों के सभी अधिशासी अधिकारियों की नियुक्ति छावनी अधिनियम, 1924 के अंतर्गत की गई थी। उन्हें छावनी अधिनियम, 1924 के अधीन अधिशासी अधिकारी सेवा नियम, 1925 के अंतर्गत नियंत्रित एक संवर्ग में रखा गया था तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था। केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त सेना संपदा अधिकारियों की संख्या कम थी तथा उनका कोई संवर्ग विशेष नहीं था। 1937 में छावनी अधिनियम में संशोधन के पश्चात् अधिशासी अधिकारी सेवा नियम 1925 का स्थान अधिशासी अधिकारी सेवा नियम, 1937 ने ले लिया।
1948 में ‘‘सेना भूमि तथा छावनी सेवा’’ नाम से एक नया संवर्ग बनाया गया, जिसमें सभी सेना संपदा अधिकारियों, छावनियों के अधिशासी अधिकारियों तथा कमान मुख्यालयों के अधिकारियों व रक्षा मंत्रालय के निदेशालय के अधिकारियों को शामिल किया गया। इस संवर्ग की नियुक्तियां संघ लोक सेवा आयोग द्वारा वार्षिक तौर पर आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के माध्यम से की जाती है। 1983 में जब छावनी अधिनियम, 1924 में कुछ संशोधन किए गए थे तो सेना संपदा अधिकारी का पदनाम रक्षा संपदा अधिकारी किया गया था। सेना भूमि तथा छावनी सेवा नियम, 1951 का स्थान पर भारतीय रक्षा संपदा सेवा (समूह ‘क’) नियम 1985 ने लिया।
छावनी बोर्ड कर्मचारियों की भर्ती छावनी बोर्डों द्वारा की जाती है तथा उन्हें छावनी निधि से भुगतान किया जाता है। इस संगठन के सभी कार्यकलापों को रक्षा संपदा महानिदेशालय, रक्षा मंत्रालय द्वारा मॉनिटर तथा पर्यवेक्षण किया जाता है।